.

.

Breaking News

News Update:

How To Create a Website

Monday 17 April 2017

सुधार की बाट जोहती शिक्षा


** छात्रों को अंक प्राप्ति की होड़ से जोड़ने के बजाय उनका सर्वागीण विकास ही आदर्श शिक्षा व्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिए
** उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की घोषणाओं से शिक्षा में सुधार की आस जगी है

शिक्षा समग्र परिवर्तन का उपक्रम ही नहीं उपकरण भी है। विकास की प्रक्रिया विकसित शिक्षा पद्धति की अनुपस्थिति में शिथिलता से जकड़ जाती है। हालांकि सिर्फ शिक्षा की महत्ता को जान लेने से ही न तो शिक्षा अपने लक्ष्य पूर्ण कर पाती है और न प्रगति की राह सुगम हो पाती है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में शिक्षा सुधार को प्राथमिकता देने की नए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की घोषणा को वहां के लोग (और देश के लोग भी) उन सामान्य घोषणाओं की तरह नहीं ले रहे हैं जिनको सत्तासीन कुछ समय बाद भूल जाते हैं। मुख्यमंत्री का व्यक्तित्व लोगों में यह विश्वास जगा रहा है कि इस बार शिक्षा में सुधार अवश्य क्रियान्वित होंगे। अब ऐसा कोई परिवार नहीं है जो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा न देना चाहता हो। दरअसल प्रगति और विकास के लिए अच्छी शिक्षा ही आशा की एकमात्र किरण है। यहां अच्छी शिक्षा का अर्थ ऐसी शिक्षा से है जिसमें कदाचार और व्यापार न हो, जहां उसे पवित्र उत्तरदायित्व माना जाए, जहां ज्ञानार्जन की परंपराओं के आधार पर हर नए विचार, शोध, नवाचार और उपकरण या विधा को स्वीकार करने में कोई हिचक न हो, जिसमें हर विविधता को अंत:करण से स्वीकार किया जाए और जो मानवीय मूल्यों और आध्यात्मिकता को सवरेपरि माने। ऐसा भी कोई नहीं है जो शिक्षा व्यवस्था में बेहद गहरे स्तर तक फैले भ्रष्टाचार से वाकिफ न हो, लेकिन प्रदेश की जनता को योगी के साहस पर विश्वास है। 1सुधार के लिए यहां कुछ सर्वज्ञात तथ्यों को दोहराना आवश्यक है। सरकारें समय पर नियुक्तियों में रुचि नहीं लेती रही हैं। प्राचार्यो की नियमित नियुक्तियां भी इसी का शिकार हुई हैं। सरकारी स्कूलों के अध्यापक अब अनमने से हो गए हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि वहां किस वर्ग के बच्चे पढ़ रहे हैं। मध्यान्ह भोजन, किताबों और कपड़ों इत्यादि में जबरदस्त देरी केवल घूसखोरी के कारण ही होती है। उत्तर प्रदेश के स्कूलों में विज्ञान के प्रयोग अब लगभग समाप्त से हो गए हैं। फिर भी सभी प्रायोगिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं? कैसे? यही अपने में एक बड़ा सुधार का क्षेत्र होगा। 1निजी ‘प्रतिष्ठित’ स्कूल मनमानी फीस ही नहीं बढ़ाते हैं, कई अन्य रास्तों से भी ‘सालभर उगाही करते ही रहते हैं’। धनी-मनी लोगों के संरक्षण में चल रहे ऐसे अधिकांश स्कूल अपने अध्यापकों का कम वेतन देकर शोषण करते हैं, इससे कौन अनभिज्ञ है? सरकारी शिक्षण-प्रशिक्षण महाविद्यालय दयनीय स्थित में हैं और गैर सरकारी ‘जिन्हें मान्यता प्राप्त करने में खासी रकम कई स्तरों पर देनी पड़ी है’ अब शिक्षण-प्रशिक्षण के नहीं, बल्कि धन उगाहने के केंद्रों के रूप में जाने जाते हैं। शिक्षक पात्रता परीक्षा के परिणाम दस प्रतिशत से भी नीचे आते हैं। निजी विश्वविद्यालय स्थापित करने में कितने करोड़ कहां-कहां देने पड़ते थे, यह भी छिपा नहीं है। सुधार का प्रारंभ नेताओं, विधायकों और मंत्रियों से होना चाहिए। उन्हें हर प्रकार की अनावश्यक दखलंदाजी से बचना चाहिए। हर विधायक को अपने क्षेत्र के स्कूलों में आवश्यक सुविधाओं की कमी पूरी करनी चाहिए। जहां आवश्यक हो वहां समाज का सहयोग भी लेना चाहिए। हर गांव में या उसके निकटवर्ती गांव में ऐसे सेवानिवृत्त अध्यापक, सैनिक और स्थानीय कारीगर स्कूल को सहयोग देने को उत्सुक होते हैं। उन्हें स्कूलों से जोड़ा जा सकता है। इससे स्कूल की कार्य-संस्कृति उचित मार्ग पर आगे बढ़ सकती है। इसके साथ ही जिला शिक्षा अधिकारी और उनके मातहत वे लोग ही नियुक्त होने चाहिए जो वक्त की नजाकत को समङों और उचित रूप से अपना कर्तव्य निर्वाह करें। नकल, शिक्षण सामग्री का समय पर न पहुंच पाना और निजी स्कूलों द्वारा पालकों का दोहन पारदर्शी और नैतिक आचरण वाले अधिकारियों द्वारा ही रोका जा सकता है। राज्य द्वारा स्थापित या अनुदान प्राप्त विश्वविद्यालयों में न केवल एक जैसे पाठ्यक्रम लागू होने चाहिए, बल्कि उनका प्रबंधन भी एक जैसा होना चाहिए। सरकारी स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को फिर से दूसरों के लिए आदर्श स्थापित करने की स्थिति में लाना होगा। ऐसी स्थिति विकसित करनी चाहिए कि कुलपतियों को अध्यापकों के स्वीकृत पदों पर भी नियुक्ति करने के लिए सचिवालय के चक्कर न लगाने पड़ें। सरकार चाहे तो अगले छह महीनों में सभी रिक्त पद भरे जा सकते हैं। इसके साथ ही चयन प्रक्रिया का पुन:अवलोकन करना होगा। अन्य राज्यों से भी विद्वानों को इसमें जोड़ना होगा। शोध, प्रकाशन और प्रशिक्षण को प्राथमिकता देनी होगी। प्रतिभावान युवाओं को फिर से उच्च शिक्षा और शोध की ओर आकर्षित करने के उपाय ढूंढ़ने होंगे। अतिथि अध्यापक, व्याख्यान आधारित भुगतान जैसी प्रणालियों को बंद करना होगा। स्कूलों में प्राचार्यो से लेकर विश्वविद्यालयों के कुलपतियों तक की नियुक्ति में पद खाली होने के एक महीने पहले चयनित व्यक्ति का नाम अवश्य घोषित हो जाना चाहिए।1किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था तभी सफल होती है जब बच्चों के संपूर्ण व्यक्तित्व विकास को लक्ष्य बनाती है, लेकिन भारत में ‘बोर्ड परीक्षा के परिणाम’ ही एकमात्र लक्ष्य बनकर रह गए हैं। चरित्र निर्माण के बिना शिक्षा अधूरी ही रह जाती है। ‘क्या पढ़ाया जाए और कैसे पढ़ाया जाए’ को भी सुधारों का अनिवार्य अंग बनाना पड़ेगा। इस समय उत्तर प्रदेश सरकार को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों की खंडपीठ द्वारा 12 सितंबर, 2002 को दिए गए उस निर्णय का अध्ययन करना सर्वथा उचित होगा जिसमें सामाजिक सद्भाव और पंथिक भाईचारे को बढ़ाने के लिए किए गए शैक्षिक परिवर्तनों को सराहा गया था। इनमें कहा गया था कि बच्चे सभी धर्मो के मूल तत्व और अवधारणाएं जानें, समानताओं को समङों और जहां-जहां अंतर है उनका आदर करना सीखें। स्कूल कोई कर्मकांड नहीं पढ़ाएंगें। वे भाईचारे और पंथिक सद्भाव की वह नींव रखेंगे जो सेक्युलर शब्द को व्यवहार में सही अर्थ देगी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सब धर्मो की मूल अवधारणाओं की जानकारी हर बच्चे को देने संबंधी संस्तुति ‘सेक्युलरिज्म’ के खिलाफ नहीं है। यह तो पंथनिरपेक्षता को सही आधार प्रदान करेगी। इसी निर्णय में उसने संस्कृत को भारतीय संस्कृति को समझाने के वाहक के रूप में विशिष्ट स्थान देने की बात भी कही थी। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में कर्मठ, अध्ययनशील, और ईमानदार अध्यापकों, अधिकारियों और विद्वानों की कमी नहीं है, लेकिन योगी सरकार को उनका मनोबल बढ़ाना होगा। उनसे प्रत्येक स्तर सहयोग पर लेना होगा। 

जगमोहन सिंह राजपूत

(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.