फतेहाबाद : सरकार उम्मीद करती है कि स्कूलों के बच्चे खेलों में मेडल जीतकर
लाएं। हाल में हुए ओलंपिक खेलों में दयनीय प्रदर्शन के बाद यह मुद्दा
गर्माया हुआ है कि आखिर खिलाड़ियों के प्रदर्शन में सुधार कैसे किया? यदि
व्यवस्था को टटोल कर देखें तो इस सवाल का जवाब शिक्षा विभाग के आंकड़े ही
बयां कर देते हैं। यह सुनकर भी हैरानी होती है कि सरकार प्रति बच्चे पर
सालाना पांच रुपये खेल बजट के रूप में खर्च करती है। फिर पांच रुपये की एवज
में सरकार बच्चे से गोल्ड मेडल की उम्मीद करे तो यह संभव नहीं है।
मसला
गंभीर है, लेकिन शिक्षक संगठनों की निजी मांगों के तले दब जाता है। मौलिक
शिक्षा निदेशालय की तरफ से पहली से आठवीं तक के बच्चों के लिए खेल निधि
निर्धारित होती है। उस निधि में पांच रुपये प्रति बच्चे के हिसाब से यह बजट
मिलता है। यानी किसी स्कूल में 500 बच्चे हैं तो खेलों के लिए 2500 रुपये
सालाना ही
बजट मिलेगा।
इस राशि को दस बच्चों पर खर्च करें या पचास बच्चों पर, यह
स्कूल मुखिया को ही तय करना होता है। ऐसे में स्कूल मुखियाओं की भी यही
कोशिश रहती है कि गिने चुने बच्चों को प्रतियोगिताओं में भेजा जाए ताकि बजट
समायोजित हो सके। इससे प्रतिभावान विद्यार्थी पीछे रह जाते हैं।
"प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए सरकार बहुत सारे कदम उठाने जा रही
है। इस दिशा में बहुत सारे सुधार किए जा रहे हैं। सरकार गंभीर है और थोड़े
ही दिन बाद शिक्षा विभाग में भी यह बदलाव नजर आएगा।"-- डॉ. यज्ञदत्त वर्मा,
डीईओ।
शिक्षा विभाग के पास खेल प्रतियोगिताओं के लिए बजट नहीं
शिक्षा विभाग
की तरफ से हर साल आदेश मिलते हैं कि खंड व कलस्टर स्तर पर खेल
प्रतियोगिताएं करवाएं। खेल प्रतियोगिताओं में बच्चों के लिए खाने से लेकर
पानी तक की व्यवस्था करनी पड़ती। खेल का सामान भी चाहिए। लेकिन शिक्षा
विभाग कोई राशि जारी करता नहीं है। अधिकारी साफ कह देते हैं कि ऐसे कार्यों
के लिए सामाजिक संस्थाओं, समाजसेवियों व ग्राम पंचायतों का सहयोग लें। dj
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