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Monday, 20 November 2017

यूनेस्को की रपट : स्कूली शिक्षा की बदहाली

भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति पर यूनेस्को की रपट पर सरकार को उतना ही ध्यान देना चाहिए जितना कि उसने हाल ही में आई मूडीज की रपट पर दिया। सच तो यह है कि प्रतिष्ठित वैश्विक संस्थाओं के ऐसे हर अध्ययन पर गंभीरता प्रदर्शित की जानी चाहिए जो किसी भी क्षेत्र में भारत की स्थिति पर अपना आकलन पेश करते हैं। इस संदर्भ में यह कोई छिपी बात नहीं कि वैश्विक संस्थाओं के ऐसे कई अध्ययन हैं जो यह बताते रहते हैं कि भारत विभिन्न क्षेत्रों में किस तरह पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहा है। इस मामले में मानव सूचकांक संबंधी रपट भी उल्लेखनीय है और कुपोषण की स्थिति को बयां करने वाली ग्लोबल हंगर रपट भी। दरअसल जब हमारे नीति-नियंता इस तरह की रपटों पर गंभीरता प्रदर्शित करेंगे और तंत्र की कमजोरियों को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाएंगे तभी वांछित परिणाम सामने आएंगे। वैश्विक संस्थाओं की रपटों पर ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि इनमें भारत की जो तस्वीर पेश की जाती है उससे ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक हद तक देश की छवि का निर्माण होता है। शिक्षा में सुधार के मामले में मोदी सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही अनेक आश्वासन दिए थे। इन आश्वासनों के अनुरूप काफी कुछ हुआ भी है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। 
समस्या केवल यह नहीं है कि स्कूली शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए जा सके हैं, बल्कि यह भी है कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने में भी वांछित सफलता नहीं मिल सकी है। परिणाम यह है कि उद्योग-व्यापार जगत एवं समाज को जैसे उच्च शिक्षित युवाओं की आवश्यकता है वैसे युवा शिक्षा संस्थानों में नहीं निकल पा रहे हैं। स्पष्ट है कि केंद्र सरकार को स्कूली शिक्षा के साथ-साथ उच्च शिक्षा में सुधार के लिए भी तेजी के साथ ठोस कदम उठाने होंगे। चूंकि शिक्षा केंद्र एवं राज्यों के अधिकार वाला विषय है इसलिए चीजें उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं जितनी बढ़नी चाहिए। यह ठीक नहीं कि शिक्षा में अपेक्षा के अनुरूप सुधार इसलिए न हो पाए, क्योंकि यह समवर्ती सूची का विषय है। अच्छा यह होगा कि केंद्र और राज्य इस पर विचार करें कि शिक्षा के मामले में दोनों मिलकर आगे कैसे बढ़ें। इस मामले में ढिलाई के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। नि:संदेह यूनेस्को की रपट उन तमाम बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित करती है जिन पर गौर किए जाने की आवश्यकता है, लेकिन उसके इस आकलन से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि स्कूली शिक्षा की मौजूदा स्थिति के लिए अकेले शिक्षक उत्तरदायी नहीं हैं। नि:संदेह सारी जिम्मेदारी शिक्षकों पर नहीं छोड़ी जा सकती, लेकिन यह भी सही है कि शैक्षिक स्तर में सुधार की रीढ़ तो शिक्षक ही हैं। यदि शिक्षक अपने दायित्व की महत्ता को समङों तो वे अपने बलबूते शैक्षिक परिदृश्य में उल्लेखनीय सुधार कर सकते हैं। देश के सामने इसके कई उदाहरण भी हैं। दुर्भाग्य यह है कि इस समय शिक्षकों का एक वर्ग ऐसा है जो अपने कर्तव्यों के निर्वहन के प्रति उतना सजग-सचेत नहीं जितना उसे होना चाहिए।

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