मुद्दा पुराना है, लेकिन अब नए सिरे से एजेंडे पर है। क्या शिक्षकों को मध्याह्न भोजन (मिड-डे मील) योजना जैसे गैर-शिक्षकीय कार्य में लगाना उचित है? सारण जिले के एक स्कूल की त्रासद घटना के बाद बिहार के शिक्षक मध्याह्न भोजन योजना से खुद को अलग करने के लिए आंदोलन की राह पर हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इससे जुड़े मामले को विचारार्थ स्वीकार कर लिया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने मध्याह्न भोजन पकाने संबंधी कार्यों की निगरानी की जिम्मेदारी गैर-सरकारी संगठनों से लेकर स्कूलों के प्रिंसिपल और शिक्षकों पर डाल दी है, जिसे हाई कोर्ट में चुनौती दी गई है। उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा है कि शिक्षकों का काम पढ़ाना है, उन्हें यही काम करना चाहिए न कि उन्हें मध्याह्न भोजन की निगरानी में लगा दिया जाना चाहिए। बात स्पष्ट और तार्किक है। लेकिन इस पर जानकारों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं की राय बंटी हुई है। एक दलील यह है कि छात्रों को उचित एवं सही समय पर दोपहर का भोजन मिले, इसे सुनिश्चित करने के लिए शिक्षकों से अधिक उपयुक्त कोई और नहीं हो सकता। मध्याह्न भोजन योजना को कमजोर तबकों के बच्चों को स्कूलों में लाने, वहां टिकाए रखने और जात-पांत के भेदभाव को तोड़ते हुए सामूहिक भोजन से समरसता का भाव पैदा करने का माध्यम माना गया है। गैर-सरकारी संगठनों के जरिये इसे लागू करने का प्रयोग भी हो चुका है और वह लगभग नाकाम रहा है। लेकिन एक राय यह भी है कि भोजन आपूर्ति करने का अनुबंध बने-बनाए डिब्बाबंद खाद्यों की निर्माता कंपनियों को दे दिया जाए। ऐसे भोजन को सही पोषण के लिए जरूरी विटामिन, खनिज आदि सप्लीमेंट के साथ तैयार कर कुपोषण के खिलाफ कारगर संघर्ष किया जा सकता है। ऐसा हो तो शिक्षकों से गैर-शैक्षिक कार्य का एक बड़ा बोझ हट जाएगा। स्पष्टत: इन दोनों सोच के अपने लाभ और नुकसान हैं। लेकिन अब इनसे जुड़े प्रश्नों को टाला नहीं जा सकता। इसलिए बिहार के शिक्षकों की मांग पर राष्ट्रीय संदर्भ में गंभीरता से विचार-विमर्श होना चाहिए। शिक्षकों की वाजिब शिकायतों पर जरूर ध्यान दिया जाना चाहिए। अगर उनसे पढ़ाने के अलावा किसी और बड़ी सामाजिक भूमिका की अपेक्षा है, तो इस पर उनसे संवाद कर सहमति बनाई जानी चाहिए। समस्या से आंख मूंदना कोई समाधान नहीं है।...DB
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