पहली से आठवीं तक के बच्चों को फेल न करने के लिए लागू नो डिटेंशन पॉलिसी को छात्र हितों के विपरीत बता कर प्रदेश की शिक्षा मंत्री ने इसके लिए व्यावहारिक विकल्प या पूर्ववर्ती नीति लागू करने की फिर वकालत की है। नीति की समीक्षा के लिए गठित केंद्रीय सलाहकार बोर्ड की उपसमिति की अध्यक्ष के तौर पर उनकी टिप्पणी कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण होने के साथ व्यवस्था में सार्थक बदलाव के लिए गहन मंथन की अपेक्षा भी करती है। पिछले कुछ वर्षों के परीक्षा परिणाम को सामने रख कर देखा जाए तो साफ पता चल रहा है कि परिणाम और शिक्षा अध्ययन स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। स्थिति यहां तक चिंताजनक हो चुकी कि दसवीं और बारहवीं का परिणाम बेहतर दिखाने के लिए शिक्षा बोर्ड को विशेष कृपांक देने पड़ रहे हैं। आठवीं तक के बच्चे फेल होने के भय से मुक्त होने के कारण पढ़ाई के प्रति गंभीर नहीं हो रहे, अभिभावकों के नजरिये में भी परिपक्वता का अभाव देखा जा सकता है। समिति के निष्कर्षो के मुताबिक नो डिटेंशन पॉलिसी के कारण पाठ्यक्रम पूरा नहीं कराया जा रहा, रिवीजन की तो संभावना ही नहीं बचती। चूंकि योजना केंद्र सरकार ने वृहद-व्यापक उद्देश्य से लागू की थी, राज्यों से सक्रिय सहयोग की अपेक्षा थी पर लगता है शिथिलता व उदासीनता ने शिक्षा की निरंतरता को बाधित कर दिया है। उपसमिति अध्यक्ष के तौर पर शिक्षा मंत्री ने जो सवाल उठाए उनके समाधान की प्रक्रिया आरंभ करवाने में अधिक विलंब नहीं होना चाहिए। वैसे अध्यक्ष के रूप में गीता भुक्कल ने लगभग आठ महीने पूर्व भी ऐसी ही चिंता जताई थी पर सवाल यह भी है इस अवधि के दौरान नो डिटेंशन पॉलिसी को बदलने के लिए राज्य की ओर से उन्होंने क्या कोई पहल की? यह भी बताया जाए कि भविष्य के लिए उनके सुझाव क्या हैं? अध्यक्ष के रूप में यदि पहल की गई होती तो संभव है अब तक किसी नई तस्वीर की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी होती। कई और प्रदेशों में भी गिरते अध्ययन स्तर के प्रति चिंता जताई जा रही है। मुद्दे पर गंभीरता दिखाते हुए राज्य सरकार को पॉलिसी से असंतुष्ट प्रांतों को एकजुट कर सार्थक शुरुआत करनी चाहिए। जब केंद्र सरकार द्वारा गठित उपसमिति निष्कर्ष निकाल चुकी कि नो डिटेंशन पॉलिसी हर स्तर पर नुकसानदायक है तो इसे जारी रखने का कोई औचित्य नहीं। djedtrl
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