तार्किक नीति के अभाव में शिक्षा क्षेत्र को व्यवस्थित, नियोजित स्वरूप में लाया जाना संभव नहीं हो पा रहा। बात जेबीटी शिक्षकों की हो या गेस्ट टीचर की, अस्पष्टता का अंधकार छंटता दिखाई नहीं दे रहा। जैसी कि उम्मीद थी, प्रदेश सरकार ने वर्ष 2000 में नियुक्त लगभग तीन हजार जेबीटी शिक्षकों का भाग्य नई सरकार के पाले में डाल दिया है। सरकार ने हाई कोर्ट में बताया कि इस बारे में अभी तक कोई नीति तय नहीं हो पाई है, उसे और समय चाहिए जिस पर कोर्ट ने 30 नवंबर तक का समय दे दिया। इसका सीधा तात्पर्य है कि इन शिक्षकों की पैरवी के लिए अब नई सरकार के प्रतिनिधि ही कोर्ट में उपस्थित होंगे। कोर्ट ने निर्देश दिया था कि समस्या समाधान और जेबीटी के नियोजन के लिए कोई नीति बनाई जाए पर सरकार यह काम नहीं कर पाई। इससे स्पष्ट है कि नीति निर्धारण में कहीं न कहीं चूक रही। कुछ पक्षों की तरफ से इसे जवाबदेही, जिम्मेदारी से बचने की कवायद भी माना जा रहा है। कितनी रुचि ली गई, कितने प्रयास हुए, कानूनी पेचीदगियों पर मंथन के लिए कितनी बैठकें हुईं, इन सबके बारे में सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। अहम यह नहीं कि कितनी घोषणाएं हुई, महत्वपूर्ण यह है कि कितनी पर अमल की प्रतिबद्धता दिखाई गई। कोर्ट में विचाराधीन होने का कारण बता कर जेबीटी का मामला तो नई सरकार के गठन तक टल गया पर वर्तमान सरकार को अपनी प्रबंध कुशलता का परिचय देकर गेस्ट टीचरों को विधानसभा चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले समायोजित करना चाहिए। बार-बार आश्वासन का झुनझुना देकर नियमित करने के सब्जबाग दिखाए जाते रहे, किसी सीमा तक टीचर भी इस झुनझुने के आदि हो गए थे। जो तत्परता, उत्कंठा, पीड़ा और तेवर अब दिखाए जा रहे हैं यदि वे एक या दो साल पहले दिखाए जाते तो बात कुछ और ही होती। किसी इच्छापूर्ति की उम्मीद रखना स्वाभाविक मानवीय पहलू है पर उम्मीद स्वत: पूरी होने की आस में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाना किसी सूरत में उचित नहीं माना जा सकता। सरकार के पास वक्त बहुत कम है पर चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले उसे साबित करना होगा कि गेस्ट टीचरों को समायोजित करने के लिए उसने वास्तव में गंभीर प्रयास किए। शिक्षा क्षेत्र में अव्यवस्था इतनी बढ़ चुकी कि अराजकता का अहसास होने लगा है। इसे पटरी पर लाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए। djedtrl
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