कर्मचारियों का विवाद प्रदेश सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहा, बार-बार लगता है जैसे वार्ता निष्कर्ष तक पहुंच गई पर अगले ही पल वास्तविकता सामने होती है कि दोनों पक्ष जहां से चले थे, वहीं खड़े हैं। चंडीगढ़ में हुई बैठक में कर्मचारियों के तेवर और अधिकारियों के रवैये से लगता नहीं कि मुख्यमंत्री द्वारा दी गई बैठक की अगली तिथि को किसी सकारात्मक बिंदु पर पहुंचना संभव होगा। हाल की बैठक में कर्मचारी दो बार कार्यवाही और प्रक्रिया का बहिष्कार कर गए जिससे साफ जाहिर है उनकी मुख्य मांगों को अधिकारी तरजीह नहीं दे रहे। लगता है अनुबंधित कर्मचारियों के मुद्दे पर सरकार अपने ही स्टैंड व नीति पर स्थिर नहीं दिखाई दे रही। पूर्व नीति में संशोधन की बात पर कर्मचारियों का उद्वेलित होना स्वाभाविक है। कर्मचारी दो बार राज्यव्यापी आंदोलन कर चुके और अब तीसरी बार फिर उसी मुद्रा में आ गए हैं। शीर्ष अधिकारियों का यह कहना कि कुछ मांगें पूरी करना उनके हाथ में नहीं, दर्शाता है कि न तो मुद्दों की गंभीरता पर पूरा होम वर्क किया गया और न ही व्यावहारिकता, तार्किकता अथवा अधिकार क्षेत्र पर गहन मंथन हुआ। ऐसे में सरकार किस आधार पर दावा कर रही है कि कर्मचारियों के साथ गतिरोध समाप्त करने के लिए वह गंभीर है। मांगों की फेहरिस्त अब भी उतनी ही लंबी है जितनी वार्ता के तीन दौर और दो बार आंदोलन होने से पूर्व थी। हालात और कर्मचारियों के आरोपों में काफी हद तक समानता ढूंढ़ी जा सकती है। सरकार अपनी नीति और नीयत तत्काल स्पष्ट करे ताकि गतिरोध दूर करने के लिए सकारात्मक माहौल तैयार करने में मदद मिल सके। उन बातों, तथ्यों तथा पहलुओं पर अभी से मंथन शुरू किया जाना चाहिए जिनके आधार पर मुख्यमंत्री और अधिकारी 26 फरवरी को होने वाली बैठक में समस्या समाधान की कोशिश करेंगे। हरियाणा कर्मचारी तालमेल कमेटी की प्रमुख मांगें साढ़े तीन हजार निजी रूट परमिटों को रद करने और अनुबंधित कर्मचारियों को पक्का करने की है जिन पर सहमति के लिए सर्वाधिक मेहनत किए जाने की आवश्यकता है। सरकार इस तथ्य को संजीदगी से समङो कि कर्मचारी आंदोलन लंबा खींचने से आम आदमी की तकलीफें बढ़ने के साथ सरकार की प्रबंध क्षमता पर अंगुली उठनी तय है, उसकी विश्वसनीयता पर भी आंच आ सकती है। djeditrl
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