** शिक्षा की गुणवत्ता
घटने के लिए इस नीति को जिम्मेदार ठहराना गलत
** स्कूल-पूर्व शिक्षा से
दसवीं तक की पढ़ाई हो आरटीई के दायरे में
** खुले में शौच से मुक्ति को लेकर
पहली बार दिख रही इतनी तत्परता
** बच्चों के अधिकार के लिए काम करने वाला
यूनिसेफ हुआ 70 साल का
नई दिल्ली : जहां सरकार आठवीं तक के छात्रों को अनिवार्य रूप से पास करने की
नीति को बदलने की तैयारी में है, संयुक्त राष्ट्र की बच्चों के कल्याण के
लिए बनी संस्था यूनिसेफ मौजूदा नीति को सही बता रही है। यूनिसेफ के भारत
प्रतिनिधि लूई जॉर्ज आर्सेनाल्ट कहते हैं कि वार्षिक परीक्षा पढ़ाई के
मूल्यांकन का बेहतर तरीका नहीं है। इसलिए बच्चों को पास-फेल के खेल में
नहीं झोंकना चाहिए।
पेश है बच्चों के लिहाज से भारत के विकास लक्ष्यों पर
हुई उनसे बातचीत के प्रमुख अंश :
यूनिसेफ 1949 से भारत में काम कर रहा है।
भारत को अब किन मुद्दों पर प्राथमिकता देनी चाहिए?
सबसे पहली तवज्जो तो
शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने पर होनी चाहिए। शिक्षा के बेहतर
नतीजे पाने के लिए हमें शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी व्यवस्था को मजबूत
करना होगा। इसी तरह कुपोषण की वजह से आज भी भारत में पांच साल से कम उम्र
के 39 फीसद बच्चे ठिगने रह जाते हैं, यानी स्टंटिंग के शिकार हैं। इसी से
जुड़ा मुद्दा है स्वच्छता का। स्वच्छता नहीं होने से स्टंटिंग ही नहीं बहुत
सी गंभीर बीमारियां भी अपना शिकार बनाती हैं। चौथी प्राथमिकता बाल श्रम और
बाल विवाह को खत्म करना है जिसके लिए लगातार जोर देते रहना होगा। नवजात
बच्चों की मृत्यु दर को सीमित करना अहम लक्ष्य है।
शिक्षा के क्षेत्र में
क्या नीतिगत बदलाव जरूरी हैं?
शिक्षा के अधिकार (आरटीई) में दो अहम संशोधन
जरूरी हैं। कम से कम 16 साल तक की उम्र (दसवीं क्लास) तक यह अधिकार मिलना
चाहिए। अभी यह सिर्फ 14 साल की उम्र तक है। अगर आप चाहते हैं कि देश को बाल
श्रम और बाल विवाह से मुक्ति मिले तो बच्चों को स्कूल में रखना होगा। इसी
तरह आरटीई लाते समय ईसीई यानी प्रारंभिक बाल्यकाल शिक्षा पर ध्यान नहीं
दिया गया था। यह बहुत जरूरी है कि स्कूल पूर्व शिक्षा और स्कूली शिक्षा
दोनों एक ही व्यवस्था का हिस्सा हों। इसलिए इसे आरटीई में शामिल किया जाना
चाहिए।
आंगनबाड़ी में यह हो रहा है..
स्कूल-पूर्व शिक्षा अभी लोगों का
कानूनी हक नहीं है। इस कानून में संशोधन लाना होगा। दुनिया भर के तमाम शोध
इस बात को साबित करते हैं कि अगर हम प्रारंभिक बाल्यकाल विकास और एक साल की
स्कूल-पूर्व शिक्षा मुहैया करवा दें तो बच्चा आगे औपचारिक शिक्षा में भी
बेहतर साबित होता है।
आठवीं तक फेल नहीं करने की नीति बदली जा रही है। यह
ठीक है?
उत्तर : प्रारंभिक शिक्षा में ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए कि आप
एक बार एक परीक्षा में फेल कर जाएं तो आपको दोबारा पूरे साल उसी क्लास में
पढ़ना पड़े। पहले यह होता था। लेकिन अगर आप आरटीई के प्रावधानों को देखें
जिसमें एक्टिविटी बेस्ड लर्निग (गतिविधियों पर आधारित शिक्षा) की बात की गई
है तो वहां तो इसका ठीक उल्टा है। यहां बच्चों का आकलन इस आधार पर नहीं
किया जाना कि एक परीक्षा हो जिसमें हम बताएं कि तुम पास हुए और तुम फेल।
इसलिए हम सरकार को सुझाव दे रहे हैं कि फिर से पास-फेल की नीति नहीं लाई
जाए।
लेकिन अधिकांश राज्यों ने कहा कि फेल न करने से शिक्षा की गुणवत्ता
प्रभावित हो रही है।
अगर शिक्षा की गुणवत्ता नीचे गई तो यह फेल नहीं करने
की नीति की वजह से नहीं है। नीति को सही तरीके से लागू नहीं कर पाने की वजह
से हो सकता है। आरटीई में नियमित और समग्र मूल्यांकन (सीसीई) का प्रावधान
किया गया था। बच्चे की प्रगति को जांचने का सबसे अच्छा तरीका सीसीई ही है।
टीकाकरण बढ़ाने के कार्यक्रम की प्रगति से कितने संतुष्ट हैं?
इंद्रधनुष
कार्यक्रम में हम इसकी योजना तैयार करने के स्तर से ही साङोदार हैं। इससे
टीकाकरण कवरेज में एक वर्ष में चार से पांच फीसद की बढ़ोतरी हुई है, जो
पहले सिर्फ एक फीसद की दर से बढ़ रहा था।
खुले में शौचालय से मुक्ति
(ओडीएफ) का हम लक्ष्य हासिल कर पाएंगे?
सरकार ने वर्ष 2019 तक इसे पूरी तरह
समाप्त करने का लक्ष्य रखा है जो बहुत महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। यह पहला
मौका है जब सरकार ओडीएफ पर इतना जोर दे रही है। इस मामले में पिछले दो दशक
के दौरान बहुत काम नहीं हुआ।
बच्चों के उत्पाद बेचने वाली कंपनियों से आप
साङोदारी करते हैं, इससे उन्हें अनावश्यक लाभ मिलने की आशंका नहीं?
भारत
में निजी क्षेत्र बहुत योगदान कर सकता है। हमारी कोशिश है कि इन मुद्दों पर
सरकार और निजी क्षेत्र मिल कर काम कर सकें। साङोदारी के दौरान उनके लिए
आचार संहिता तय होती है, जिसका उन्हें पालन करना होता है।लूई जॉर्ज
आर्सेनाल्ट।
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