** अगर केंद्र एवं राज्य सरकारों ने सर्वोच्च न्यायालय के सत्ताईस साल पुराने फैसले के अनुसार कदम उठाया होता, तो आज शीर्ष अदालत को दोबारा यह टिप्पणी नहीं करनी पड़ती।
स्पेशिएलिटी कोर्सेज में आरक्षण खत्म करने की बात करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को अगर अपने ही सत्ताईस साल पुराने फैसले की याद सरकारों को दिलानी पड़ी है, तो इसी से पता चलता है कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के प्रति हमारी सत्ता राजनीति कितनी उदासीन है। दरअसल आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में डीएम (डॉक्टर ऑफ मेडिसिन) तथा दूसरे विशिष्ट पाठ्यक्रमों के लिए आयोजित होने वाली प्रवेश परीक्षा में उन्हीं एमबीबीएस डॉक्टरों को बैठने दिया जाता है, जो उन राज्यों के निवासी हों। स्थानीय निवासी होने की शर्त का नुकसान यह है कि इनमें दूसरे प्रांतों के उम्मीदवारों की अनदेखी कर, जो कई बार अधिक योग्य भी होते हैं, स्थानीय लोगों को तरजीह दी जाती है। प्रवेश परीक्षा में बैठने का यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के सामने सब बराबर) तथा अनुच्छेद 16 (रोजगार, शिक्षा आदि में अवसरों की समानता) का उल्लंघन भी है। वर्ष 1988 में ऐसे ही एक मुकदमे की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि सुपर स्पेशिएलिटी मेडिकल कोर्स में कोई आरक्षण नहीं होना चाहिए, क्योंकि उच्च शिक्षा का स्तर सुधारना देश हित में होगा, इससे स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता भी सुधरेगी। अदालत ने तब यह भी उम्मीद जताई थी कि केंद्र और राज्य सरकारें बगैर विलंब के इस पर गंभीरता से विचार करते हुए जरूरी निर्देश जारी करेंगी। अगर सरकारें सचमुच इस दिशा में कुछ करतीं, तो शीर्ष अदालत को अब दोबारा यह टिप्पणी नहीं करनी पड़ती। आरक्षण के मामले में अलबत्ता किसी एक सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। राजनीतिक लाभ लेने के लिए हर पार्टी और हर सरकार न केवल आरक्षण का चारा डालती हैं, बल्कि कई बार आरक्षण को पचास फीसदी से अधिक करने का फैसला भी लिया जाता है। आरक्षण पर पुनर्विचार करने के संघ प्रमुख की टिप्पणी पर भाजपा नेताओं ने बिहार के चुनाव अभियान में जैसी प्रतिक्रियाएं दी हैं, उनसे भी जाहिर होता है कि कोई सरकार आरक्षण की व्यवस्था को पलटने का जोखिम नहीं ले सकती। उनके लिए राजनीतिक हित देश हित से बड़ा है। पर शीर्ष अदालत की टिप्पणी के बाद खासकर उच्च शिक्षा में आरक्षण खत्म करने के लिए सरकारों को सक्रिय होना ही होगा। auprvah
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