सरकार व व्यवस्था का विरोध करने के तरीकों पर कर्मचारियों की विचारधारा विभिन्न हो सकती है पर एकमात्र मकसद मांगें पूरी करवाना होता है। कर्मचारियों में धड़ेबंदी भी होती है पर हर गुट के निशाने पर सरकार ही रहती है। शिक्षा क्षेत्र में स्थिति थोड़ा हट कर है। बात अजीब होने के साथ गंभीर भी है। सरकारी नीतियों का ही साइड इफेक्ट है कि अतिथि अध्यापक और पात्र अध्यापकों में विभाजन की मोटी लकीर खिंच गई है। एक धड़े को सरकार का सहयोग व संरक्षण मिला तो दूसरा इसे हकमारी मान सुप्रीम कोर्ट चला गया। सरकारी नीतियों में पारदर्शिता की निरंतर अपेक्षा की जाती है। यह भी उम्मीद रहती है कि सरकार सबको समान रूप से साथ लेकर चलेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रदेश सरकार शिक्षा क्षेत्र के प्रति बेहद गंभीर है और संसाधन झोंकने में कंजूसी नहीं दिखा रही। शिक्षा का अधिकार कानून सबसे पहले लागू करके उसने अपने इरादों का अहसास करवाया पर वास्तविकता यह है कि राज्य के विकास की गति से शिक्षा स्तर व साक्षरता दर की तालबंदी नहीं हो सकी। शिक्षकों के हजारों पद रिक्त हैं जिन्हें भरने के लिए सरकार की तैयारी कभी प्रभावशाली नहीं रही। इस कमी का सीधा असर शिक्षा स्तर पर पड़ रहा है पर इस काम में पिछले वर्ष तक तेजी क्यों नहीं आई, समझ से बाहर की बात है।
अब तत्परता दिखाई तो कानूनी दावपेंच लक्ष्य को और कठिन बना रहे हैं। ऐसे में सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि जितने अध्यापक कार्यरत हैं या जो नौकरी की दहलीज पर खड़े हैं, उनमें संबंध सद्भावपूर्ण रहें ताकि कमी के बावजूद शिक्षा कार्य बाधित न हो। कर्मचारियों की धड़ेबंदी के दो अर्थ लगाए जाते हैं। पहला यह कि सरकार अपने को कमजोर मानती है, एकजुट कर्मचारियों का सामना नहीं कर पा रही। दूसरी स्थिति यह होती है कि दिशाहीन कर्मचारी धड़ों में बंट जाते हैं। सरकार अपने को कमजोर तो कतई नहीं मान रही। उसे अपना प्रभाव और धमक दिखा कर धड़ेबंदी समाप्त करवानी चाहिए। गेस्ट टीचर को एचटेट से छूट देने के सरकार के फैसले को पात्र अध्यापक सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे चुके तो हो सकता है किसी और धड़े का अगला कदम सरकार की स्थिति को कहीं असहज न बना दे। गेस्ट टीचर और पात्र अध्यापक, दोनों का विश्वास सरकार को जीतना चाहिए। शिक्षकों की ऊर्जा यदि विवादों में व्यर्थ होती रही तो तय है कि पूरी एकाग्रता के साथ वे अध्यापन कार्य नहीं कर पाएंगे। dj ed.
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