स्कूल प्राध्यापकों का आक्रोश परीक्षा परिणाम पर निश्चित रूप से भारी पड़ने जा रहा है। सरकारी फैसलों का विरोध जताने के लिए साढ़े बारह हजार प्राध्यापकों का दो दिन का सामूहिक अवकाश लेने का निर्णय किसी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता। उन्हें व्यापक संदर्भो में विचार करके बच्चों के वर्तमान और भविष्य पर भी नजर रखनी चाहिए थी। उत्तरपुस्तिकाओं के मूल्यांकन का कार्य तीन सप्ताह लेट हो चुका। लगता है प्राध्यापकों को यह समझाने में शिक्षा विभाग विफल रहा कि मूल्यांकन का कार्य उनकी ड्यूटी में शामिल है, यह अध्यापन व्यवसाय की गरिमा से भी जुड़ा है। थोड़ा तुम बढ़ो-थोड़ा हम बढ़ें की तर्ज पर हुई प्राध्यापकों और शिक्षा बोर्ड अधिकारियों की बैठक में बर्फ कुछ पिघलती नजर आई पर वर्तमान की असुखद स्थिति से सबक लेते हुए कोई ऐसा रास्ता निकाला जाना अनिवार्य हो गया है जो शिक्षा क्षेत्र को अहं का कुरुक्षेत्र बनने से रोके। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि दसवीं और बारहवीं का परीक्षा परिणाम इतना समृद्ध नहीं कि हड़ताल, अध्यापकों के रोष प्रदर्शन का भार सहन कर सके। तार और खिंचा तो संभव है वह पर्दा खिसक जाए जो हकीकत को अब तक ढंके हुए है। सकारात्मक विजन से आधार बनाने के लिए जमीन मिलती है। संकल्प से उसे मजबूत किया जा सकता है। दबाव या किसी अन्य कारण से आंगन टेढ़ा न हो, इसका ध्यान रखना भी जरूरी है।1 सरकारी कर्मचारियों की मांगों की चेन इतनी नाजुक है कि एक कड़ी को दूसरी से जोड़े रखना बेहद कठिन हो रहा है। प्राध्यापकों की मांगों के प्रति शिक्षा बोर्ड अधिकारियों ने कुछ नरमी दिखाई तो अध्यापकों की उम्मीदें भी जाग उठीं। बोर्ड ने प्राध्यापकों की मांगों को जायज मानते हुए सरकार से स्वीकृत करवाने का आश्वासन दिया है तो यह उम्मीद करनी चाहिए कि गतिरोध बहुत जल्द समाप्त हो जाएगा। सरकार और अध्यापकों को मिल बैठ कर बच्चों को हो रहे नुकसान की भरपाई का रास्ता निकालना होगा। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि दसवीं और बारहवीं का परीक्षा परिणाम बेहतर कैसे बने। खराब परीक्षा परिणाम के लिए अकेले बच्चे ही जिम्मेदार नहीं, सबसे अधिक जिम्मेदारी तो अध्यापकों की है। खराब परिणाम के लिए उनकी जवाबदेही के साथ दंडात्मक विभागीय कार्रवाई का अनुच्छेद भी जोड़ा जाना चाहिए। ध्यान रहे कि सरकारी स्कूलों को प्रतिस्पर्धा के लायक बनाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। dj
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