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Tuesday, 25 August 2015

शिक्षा में समानता जरूरी

** आखिर उन विद्यालयों में अब अभिवावक अपने बच्चों को भेजने से कतराते क्यों हैं? 
जिस देश में सरकारी नौकरी की दीवानगी इस हद तक है कि लोग निजी कंपनियों के बड़े-बड़े पैकेज छोड़कर एक सामान्य सी सरकारी नौकरी करना पसंद करते हैं, क्योंकि यहां स्थायित्व और सुरक्षा के साथ साथ निजी क्षेत्रों की तरह शोषण नहीं है। हालांकि उसी देश में अन्य तमाम सकारी संसाधनों को दोयम दर्जे का मान लिया जाता है या ऐसा साबित कर दिया जाता है। सरकारी विद्यालय इसका सबसे प्रमुख उदहारण हैं। हमारे सरकारी बाबू, अफसर और नौकरशाह, सांसद, विधायक और मंत्रियों के बेटे बड़े बड़े निजी विद्यालयों में ही पढ़ते हैं। सरकारी विद्यालयों में इनके बेटों का पढ़ना इनकी शानो-शौकत और मर्यादा के खिलाफ मान लिया जाता है। आलम यह है कि एक आम आदमी भी जहां तक उसका वश चलता है वह अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में ही पढ़ाना चाहता है। वह किसी मजबूरीवश या लालच में ही सरकारी विद्यालयों की ओर रुख करता है, क्योंकि एक सोची समझी साजिश के तहत ऐसी धारणा का निर्माण कर दिया गया है कि सरकारी विद्यालय बेकार होते हैं, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तो निजी विद्यालयों में ही प्राप्त की जा सकती है। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकारी विद्यालयों में जहां शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता गया। ऐसा इसलिए क्योंकि, लगातार अयोग्य अध्यापकों की नियुक्ति हुई। 
तमाम अध्यापक प्राथमिक विद्यालयों को टाइमपास अड्डा समझते हैं। कई जगह तो ऐसे भी मामले सामने आए कि असली अध्यापक कोई और है मगर विद्यालय में उसके स्थान पर कुछ पैसे में कोई और व्यक्ति पढ़ा रहा है। प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा का आलम यह है कि बच्चों के हाथ में बस्ते के स्थान पर थाली होती है। उनके अभिवावक भी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन या छात्रवृत्ति की लालच में दाखिला तो दिला देते हैं मगर साथ ही संभव होता है तो उस बच्चे का नामांकन किसी निजी विद्यालय में भी करवा देते हैं जहां उन्हें उम्मीद होती है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी। निश्चित रूप से भारत में एकसमान शिक्षा की धारणा दिवास्वप्न बनकर रह गई है और एक बड़ी आबादी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित है। ऐसे में भला स्किल्ड और स्मार्ट इंडिया का सपना कैसे साकार हो सकेगा। इस कड़ी में एक हालिया निर्णय जिसने फिर से भारत में शिक्षा की दशा और दिशा पर एक नई बहस को जन्म दिया है वह है इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिया कि सभी नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों के लिए उनके बच्चों को सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाना अनिवार्य किया जाए। हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि ऐसी व्यवस्था की जाए कि अगले शिक्षा सत्र से इसका अनुपालन सुनिश्चित हो सके। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मुख्य सचिव से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि सरकारी कर्मचारी, निर्वाचित जनप्रतिनिधि, न्यायपालिका के सदस्य और वे सभी अन्य लोग जिन्हें सरकारी खजाने से वेतन एवं लाभ मिलता है, अपने बच्चों को पढ़ने के लिए राज्य के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालयों में भेजें। निश्चित रूप से यह निर्णय अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा बदल नहीं दिया जाता है तो सामान शिक्षा के अवसरों की पहल में यह फैसला मील का पत्थर साबित होगा। हालांकि व्यावहारिक रूप से इस निर्णय के अनुपालन में व्यवधानों से इंकार नहीं किया जा सकता और स्वाभाविक रूप से इस निर्णय को चुनौतियां मिलेंगी। मगर फैसले ने यह सोचने पर तो विवश किया ही है कि वे सरकारी विद्यालय जिनकी हम मिसाल देते नहीं थकते वहां से तमाम समाज सुधारक, वैानिक और राजनेता शिक्षा पा चुके हैं। आखिर उन विद्यालयों में अब अभिवावक अपने बच्चों को भेजने से कतराते क्यों हैं? सरकारी विद्यालयों का मतलब ही गरीब मजदूरों के बच्चों के लिए रह गया है। 
आखिर शिक्षा के स्तर पर इतना भेदभाव क्यों? 
कहा जाता है कि सा विद्या या विमुक्तये यानी विद्या वही जो हमें तमाम बंधनों से मुक्त करे। परंतु ये कैसी विद्या है जो अमीर के लिए अलग और गरीब के लिए अलग है। जिस शिक्षा के मूल में ही वर्ग भेदभाव है वह शिक्षा समतामूलक समाज का निर्माण कैसे कर सकेगी? हम पश्चिमी देशों के अवगुणों का बखान करते नहीं थकते परंतु उनकी जो अच्छाइया हैं क्या हमने उनसे कभी सीखने की कोशिश की है। सरकारी विद्यालयों के बच्चे अलग किताबें पढ़ें और निजी विद्यालयों के बच्चे अलग, आखिर यह कैसे  ..............प्रभांशु कुमार ओझा                                                        dj24815

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