गुहला-चीका : स्कूली बच्चों का बस्ता इस बार ओर भारी हो गया है। जाहिर है इसका सीधा सीधा असर अभिभावकों की जेब पर पड़ रहा है। भारी भरकम एडमिशन फीस और दर्जनों तरह के फंडों के बोझ तले पहले ही कसमसा रहे लोगों की अब किताबों के रेट देखकर सुनकर कराहें निकल रही हैं। आलम ये है कि नर्सरी जैसी सबसे छोटी क्लास की किताबें 525 रुपए से लेकर 1270 रुपए में मिल रही हैं। जबकि बीए फाइनल की सारी किताबें मात्र 270 रुपए में जाती हैं। यहीं बस नहीं अभिभावकों को एलकेजी की पुस्तकों का सेट 730 रुपए से लेकर 1714 रुपए में खरीदना पड़ रहा है।
थोड़ा ओर ऊपर की क्लासों की तरफ जाइए तो स्कूलों की मनमर्जी के दृश्य और स्पष्ट होने लगते हैं। एक पब्लिक स्कूल की छटी की किताबें 3418 रुपए की हैं तो दूसरे की 7 वीं कक्षा की पुस्तकों का सेट 3835 रुपए का है। गुहला में पहली कतार के माने जाने वाले 7-8 स्कूलों में एक दो को छोड़कर सभी स्कूलों की चौथी पांचवीं क्लासों की किताबें 2500 से लेकर 3 हजार रुपए में रही हैं।
स्कूल वालों से पूछो :
इस संबंध में आज जब कुछ पुस्तक विक्रेताओं से बात करने की कोशिश की तो वो बोले कि किताबों के रेट के बारे में जो भी बात करनी है वह स्कूल वालों से जाकर पूछो। गुहला रोड पर स्थित स्थित गुप्ता पुस्तक भंडार के संचालक अखिल गुप्ता ने कहा कि किताबों के चयन से लेकर उनके रेट तय करने और उन पर दिए जाने वाले डिस्काउंट के सारे फैसले अब निजी स्कूलों के ही हाथ में हैं। पुस्तक विक्रेता मामूली कमीशन के बदले पुस्तक वितरण का ही काम कर रहे हैं।
फिर इनकी किताबें क्यों सस्ती :
चीकाके कुछ बड़े स्कूलों का तर्क है कि जब दाल, चीनी, लेबर यानी हर चीज महंगी हो रही है तो स्वाभाविक तौर पर किताबों के रेट भी तो महंगे होंगे। लेकिन इस बात का उनके पास कोई जवाब नहीं है कि एक धार्मिक संस्था द्वारा चलाए जा रहे एसडी स्कूल डीएवी संस्था के डीएवी सीनियर सेकेंडरी स्कूल की किताबें इतनी सस्ती क्यों हैं।
एसडी स्कूल की नर्सरी की किताबें 350 8वीं क्लास की किताबें सिर्फ 840 रुपए की हैं। इसी तरह डीएवी स्कूल की नर्सरी की पुस्तकें मात्र 340 आठवीं क्लास की पुस्तकें 752 रुपए की हैं।
हरसाल बदल जाती हैं किताबें :
चीकागांव निवासी सुभाष पाधा ने सवाल उठाया कि स्कूल वाले हर साल खुद द्वारा ही लगवाई किताबें बदल क्यों देते हैं। अगर शिक्षा विभाग सिलेबस में कोई बदलाव करता है तो स्कूल वालों का किताबें बदलना समझ में आता है लेकिन वहीं सिलेबस और हर साल किताबों के प्रकाशक बदलते रहना कहां तक उचित है।
"जिला स्तर पर ऐसा कोई एक्शन नहीं ले सकते। शिक्षा विभाग ने सरकारी किताबों के रेट फिक्स किए हुए हैं। प्राइवेट पब्लिसर्ज ने अपने-अपने रेट तय किए हुए हैं। शिक्षा मंत्री या विभाग का डायरेक्टर पूरे प्रदेश के लिए नियम बनाए, इसके बाद ही कुछ हो सकता है।"-- शमशेरसिंह सिरोही, डिप्टी डीईओ db
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