शिक्षा नीति और कार्य संचालन में तालमेल न होने का एक और उदाहरण सामने आया है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर जांचने के लिए परीक्षा लेने का शिक्षा विभाग ने आदेश दिया जिस पर प्राथमिक शिक्षक और विद्यालय अध्यापक संघ आक्रामक मुद्रा में आ गए हैं। योजना यह है कि तीसरी और पांचवीं कक्षा में शिक्षा का स्तर जांचने के लिए 25 से 28 मार्च तक परीक्षा होगी और उसके परिणाम के आधार पर विभाग शिक्षा स्तर सुधार कार्यक्रम को अंतिम रूप देगा। इस परीक्षा में पीजीटी व मास्टर ड्यूटी देंगे। शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद आठवीं कक्षा तक किसी बच्चे को परीक्षा में फेल नहीं किया जा रहा। यह बात दूर से देखने में तो भली लगती है लेकिन गंभीरता से गौर किया जाए तो तथ्य सामने आएगा कि शिक्षा का आधार ही खोखला हो रहा है। बड़ी कक्षाओं के परिणाम सभी को चिंतित कर रहे हैं। संभवत: इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए विभाग ने शिक्षा का स्तर जांचने के लिए परीक्षा करवाने की योजना बनाई है। यदि परीक्षा परिणाम नकारात्मक रहा तो संभव है कि प्राथमिक शिक्षकों की क्षमता का आकलन करने की स्थिति भी बन जाए। यहां प्रश्न यह भी है कि ऐसी परीक्षा का अचानक निर्णय लिया जाना कहां तक औचित्यपूर्ण है? प्राथमिक शिक्षक संघ का इस मुद्दे पर विरोध कुछ हद तक न्यायोचित माना जा सकता है। उसके सुझाव पर विचार किया जाना चाहिए कि ऐसी परीक्षा का कार्यक्रम नए शिक्षा सत्र के आरंभ में ही बनाया जाए ताकि सही जवाबदेही तय की जा सके।
प्राथमिक शिक्षक संघ सत्र के अंत में परीक्षा करवाए जाने के विरोध में आंदोलन छेड़ने को तैयार बैठा है। अपने इरादों से वह शिक्षा मंत्री को अवगत भी करवा चुका। परीक्षा में पीजीटी व मास्टर की ड्यूटी लगाए जाने पर भी आपत्ति जताई गई। अहम पहलू यह है कि शिक्षा विभाग में किसी निर्णय से पहले उसके व्यावहारिक बिंदुओं पर ध्यान क्यों नहीं किया जाता? शिक्षा का स्तर जांचने की बात शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के इतने साल बाद एकाएक क्यों याद आई। शिक्षा मंत्री का यह आश्वासन सकारात्मक कहा जा सकता है कि इस परीक्षा में ड्यूटी प्राथमिक अध्यापकों की ही लगाई जाएगी, पर उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि नीतियों में एकरूपता, पारदर्शिता और व्यावहारिकता लाने के लिए शिक्षा विभाग की क्या कार्ययोजना है, उसे कब तक लागू किया जाएगा? शिक्षा नीति में स्थिरता की भी नितांत आवश्यकता है। djeditrl
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