प्रदेश के अधिकांश सरकारी स्कूलों के खराब परीक्षा परिणाम पर प्रत्येक वर्ष
की तरह इस वर्ष भी सरकार, मंत्री और नौकरशाही चिंतित है। 10 फीसद से कम
परिणाम वाले 160 स्कूलों के प्रधानाध्यापकों से जवाब मांगा गया है। दैनिक
जागरण ने इस ज्वलंत मुद्दे पर स्कूलों तक पहुंचकर पड़ताल की तो जवाब वही
सामने आए जिससे व्यवस्थापक अनभिज्ञ नहीं हैं। बहुत स्पष्ट है कि व्यवस्थागत
दोष सुधारे बिना बेहतरी की उम्मीद नहीं की जा सकती।
क्या किसी प्राइवेट स्कूल में कोई मैडम कक्षा में कुर्सी पर पैर रखकर बैठी
और मोबाइल पर बात करती हुई नजर आ सकती है? जवाब होगा नहीं।
क्या ऐसा होना
चाहिए-नहीं।
अगला सवाल, क्या सरकारी स्कूल में ऐसे शिक्षक को तुरंत नौकरी
से निकाला जा सकता है?-नहीं। यह व्यवस्था का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष है,
क्या प्राइवेट स्कूल में एक शिक्षक के जिम्मे एक समय में दो-दो, तीन-तीन
कक्षाएं हो सकती हैं? क्या वहां के शिक्षक के पास छात्र के बैंक खाता, आधार
कार्ड, ऑनलाइन फार्म, स्कॉलरशिप, जनसेवा सर्वे और हर महीने क्षेत्र की बूथ
स्तरीय वोटर सूची को संशोधित कराने जैसी जिम्मेदारियां भी होती हैं?-नहीं।
शिक्षक कक्षा में पढ़ाए या दफ्तरों के चक्कर लगाए। स्पष्टत: खराब हालत के
यही कारण हैं। जिस तरह किसी बीमारी के फैलने के लिए माहौल जिम्मेदार होता
है, डेंगू-मलेरिया के मच्छर को पनपने-फैलने के लिए ठहरा हुआ पानी चाहिए,
स्वस्थ जीवन के लिए स्वच्छता चाहिए, स्कूली शिक्षा को भी व्यवस्था और
वातावरण की आवश्यकता है। पूरे प्रदेश के सरकारी स्कूलों में बिजली की
सुविधा के लिए जेनरेटर तो तुरंत खरीद लिए गए परंतु डीजल के अभाव में सभी
जंग खा चुके हैं। चाहे स्कूल नूंह में हो या फतेहाबाद में, उनके रख-रखाव की
जिम्मेदारी चंडीगढ़ के पास है। जिला स्तर पर एक या दो स्कूलों में एजुसेट
और कंप्यूटर ही कामकाजी हालत में हैं। कौन जवाबदेह है इसके लिए? जल्द ही
सभी स्कूलों में सोलर प्लांट स्थापित किए जाएंगे और स्वच्छ जल के लिए आरओ
सिस्टम भी लगेंगे। दूसरी तरफ की तल्ख सच्चाई है कि स्कूलों में दर्जा चार
सफाई व सुरक्षा कर्मचारी तक नहीं हैं। काम ऑनलाइन है परंतु कंप्यूटरकर्मी
नहीं हैं। जो सूचना ऑनलाइन है, वह भी लिखित मांगी जाती है।
स्थिति स्पष्ट
है। संसाधन नहीं है। संतुलन नहीं है। चित्रकला के शिक्षकों के पास अंग्रेजी
पढ़ाने की जिम्मेदारी है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालात और खराब हैं। इन
स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी और पढ़ाने वाले शिक्षक या तो खुद को
असहाय-अक्षम मान चुके हैं तथा पीड़ा में हैं और ऐसा नहीं है तो इस स्थिति
को अपने जीवन के रूप में स्वीकार करते हुए मजे में हैं। जिन लोगों पर इसका
कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा, वह है शहरी मध्यमवर्ग और उच्च मध्यम वर्ग। यहां
से सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले तो संबंध रखते हैं, पर पढ़ने वाले एक भी
नहीं हैं। जमीन स्तर पर सरकारी स्कूलों की पड़ताल के बाद शिक्षकों को दोषी
ठहराने का कोई कारण नजर नहीं आ रहा।
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