निजी स्कूलों को मान्यता के मुद्दे पर शिक्षा विभाग और सरकार द्वारा दो दशक से स्थायी नीति न बनाए जाने से कार्यशैली पर अनेक सवाल चस्पां हो रहे हैं। लगता है विभाग प्रदेश में निजी क्षेत्र के लिए सहज और एकरूपता कायम रखने में अधिक रूचि नहीं ले रहा। सवाल यह है कि स्थायी मान्यता के मानक तय क्यों नहीं किए जा रहे? शिक्षा बोर्ड निदेशालय से पत्र मिलने के बाद दो हजार निजी स्कूलों को पुरानी तर्ज पर चालू सत्र के लिए अस्थायी मान्यता देने को तैयार हो गया है। इन स्कूलों की स्थायी मान्यता रद हो चुकी थी और नई मिलने की उम्मीद भी नहीं थी, शिक्षा बोर्ड के नए आदेश से उन पर लटकी तलवार तो तात्कालिक तौर पर हट गई पर दशकों पुराना यह सिलसिला क्या इसी तरह चलता रहेगा? हर साल हजारों स्कूलों पर अनेक मानकों को लेकर मान्यता रद होने का खतरा पैदा हो जाता है, फाइलें शिक्षा सत्र के अंत तक घिसटती हैं और नया सत्र शुरू होते-होते मान्यता की संजीवनी दे दी जाती है। इससे साफ झलक रहा है कि नीति में कहीं न कहीं बड़ी खामी है जिसका लाभ निजी स्कूलों को जानबूझ कर दे दिया जाता है। वैसे शिक्षा विभाग अपने अतार्किक प्रयोगों के कारण अन्य के लिए असहज परिस्थितियां पैदा कर रहा है। निजी स्कूलों के लिए स्थिर व स्थायी मान्यता नीति तय की जानी चाहिए। स्कूल के दर्जे या छात्र संख्या अथवा शहर, कस्बे के आकार के आधार पर इस नीति का वर्गीकरण किया जा सकता है। 1मुख्य बात यह है कि मान्यता की तलवार हर साल न लटके क्योंकि इससे उन स्कूलों के शैक्षिक माहौल पर प्रतिकूल असर पड़ता है और विद्यार्थी भी आशंका के शिकार हो जाते हैं। नए शिक्षा मंत्री से उम्मीद बंधी है कि वे निजी स्कूलों की व्यथा को समझते हुए किसी तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचेंगे और स्थायी निश्चिंतता की स्थिति पैदा होगी। नियम 134 ए समेत अनेक मुद्दों पर सरकार व निजी स्कूल संचालकों के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है, बात अदालत तक भी पहुंची। कहीं शिक्षा विभाग तो कहीं निजी स्कूलों को बैकफुट पर आना पड़ा। मान्यता के मुद्दे पर ऐसी स्थिति न बने इसके लिए व्यापक संदर्भो में मंथन की आवश्यकता है। मानकों का समयानुकूल सरलीकरण करके अस्थायी मान्यता की प्रक्रिया को बदल कर उसे स्थायी भाव दिया जाना चाहिए। ऐसा करते समय विभाग को सरकारी स्कूलों में मानकों के अनुपालन की भी तुलना करनी चाहिए। djedtl
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