भले ही व्यापक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए राज्य मंत्रिमंडल ने सेवानिवृत्ति की आयु 60 से घटाकर 58 साल कर दी लेकिन कर्मचारी संगठनों को इस फैसले से संतुष्ट करने में सरकार को खासी मशक्कत करनी पड़ सकती है। पिछली सरकार के अंतिम दिनों में यह सीमा 58 से बढ़ा कर 60 कर दी थी। पिछली सरकार के 115 फैसलों की समीक्षा के दौरान नई सरकार का मानना है कि सेवानिवृत्ति आयु बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं था, इससे नए लोगों के अवसरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। यहां बात संदर्भ को व्यावहारिक नजरिये से देखने की है। कसौटी यह है कि अधिकतम लोगों तक किस नीति का लाभ पहुंचता है? तार्किक दृष्टि से किस निर्णय का सरोकार अधिक व्यापक रहता है और किस फैसले पर सबसे अधिक प्रतिक्रिया लंबे समय तक होती है? कर्मचारी व्यवस्था एवं तंत्र की रीढ़ होते हैं और हर सरकार की कोशिश रहती है कि उनकी संतुष्टि हर स्तर पर की जाए। यह तय है कि सरकार का सेवानिवृत्ति आयु घटाने का फैसला कर्मचारी संगठनों के तेवर तीखे करेगा। सर्वकर्मचारी संघ ने इस निर्णय के खिलाफ 30 नवंबर को बैठक भी बुला ली है। 1 महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस साल पांच हजार से ज्यादा कर्मचारी सेवानिवृत्त हो रहे हैं। भर्ती प्रक्रिया की चाल कछुए जैसी है। हर विभाग में हजारों पद रिक्त हैं। इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कर्मचारियों की कमी से कामकाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, प्रगतिशीलता नहीं आ पा रही, तकनीकी दक्षता के लक्ष्य से सरकारी अमला मीलों पीछे चल रहा है। प्रशासनिक दक्षता न आ पाने के कारण ही हर योजना में व्यवधान साफ दिखाई दे जाता है। ऐसे में कर्मचारी भर्ती और सेवानिवृत्ति पर कई स्तरों पर गंभीर मंथन के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाना चाहिए। इसमें किसी भी स्तर पर चूक हुई तो पूरी श्रृंखला प्रभावित होगी और सरकार को हर दिन असहज स्थिति का सामना करना पड़ सकता है सबसे पहले तो उसे सभी कर्मचारी संघों को अपने फैसले के बारे में विश्वास में लेना होगा। यह भरोसा भी जताना होगा कि केवल विरोध के लिए पिछली सरकार का निर्णय नहीं बदला गया, एक प्रगतिशील सोच के तहत ऐसा किया गया। दृष्टिकोण स्पष्ट करने में यदि ङिाझक दिखाई गई अथवा पारदर्शिता से काम न लिया गया तो सरकार को बड़े कर्मचारी आंदोलन का सामना करना पड़ सकता है। djedtrl
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