शिक्षा विभाग की कार्यशैली पर लगातार प्रश्नचिह्न लगते रहे पर विडंबना है कि शिक्षा नीति को सुस्पष्ट, तार्किक और व्यावहारिक-प्रतिस्पर्धात्मक रूप देने के लिए न ठोस पहल की गई, न ही भावी योजना के बारे में तसल्लीबख्श जानकारी दी जा रही है। विभाग के ताजा निर्णय से नीति के छेद और गहराते नजर आ रहे हैं। रेवाड़ी में आधा दर्जन से अधिक सरकारी प्राथमिक स्कूल ऐसे हैं जहां छात्रों की संख्या दहाई से भी कम रह गई। विभाग ने अपने तौर पर कोई निर्णय लेने के बजाय स्कूल प्रबंधन कमेटियों पर जिम्मेदारी डाल दी है कि वे इन्हें बंद करने के बारे में कोई फैसला करें। ऐसे स्कूल लगभग हर जिले में मौजूद हैं और विभाग की नीति के अनुसार उन्हें अलग से चालू रखने का कोई औचित्य नहीं। नया आदेश स्वाभाविक रूप से हर जिले में लागू हुआ होगा। ऐसे में उन स्कूलों के बच्चों का साथ लगते स्कूलों में समायोजन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। यह समायोजन कितना तार्किक होगा, बच्चों को वहां की दूरी और माहौल कितना रास आएगा, इससे विभाग अधिक सरोकार रखता दिखाई नहीं दे रहा। चिंतनीय पहलू यह है कि सरकारी स्कूलों के प्रति छात्रों में आकर्षण क्यों नहीं बढ़ रहा? अभिभावकों का भरोसा जीतने में विभाग सफल क्यों नहीं हो रहा? निजी स्कूल दाखिले से लेकर परीक्षा परिणामों में राजकीय विद्यालयों को क्यों पीछे छोड़ रहे हैं?
हाल ही में शिक्षा मंत्री का यह बयान गंभीर मायने रखता है कि सरकारी अध्यापक अधिक वेतन लेकर भी मेहनत नहीं करते। इससे शिक्षा विभाग की स्थिति स्वत: स्पष्ट हो जाती है। शर्मनाक स्थिति है कि प्राथमिक स्कूल में छात्र संख्या न्यूनतम स्तर पर जा रही है। तमाम हालात को देखते हुए विभाग और सरकार को गंभीर मंथन करने में विलंब नहीं करना चाहिए। सबसे अहम लक्ष्य यह है कि राजकीय स्कूलों को प्रतिस्पर्धात्मक कैसे बनाया जाए? सालाना करोड़ों का बजट भेजा जाता है पर उस धन से सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं पर अमल की प्रकृति क्या है, इस बारे में समीक्षा के लिए प्रभावशाली तंत्र की स्थापना नहीं हो पाई। मिड डे मील, मुफ्त पाठ्य पुस्तकें, अनुसूचितों व कन्याओं के लिए विशेष छात्रवृत्ति योजना आदि के बावजूद बच्चों का रुझान राजकीय स्कूलों की ओर न हो पाने का सीधा अर्थ है कि कहीं न कहीं इनके सही अनुपालन में गंभीर खामी है। इन्हें तलाश करके निदान करना होगा। सरकारी शिक्षा तंत्र में आधारभूत बदलाव इस वक्त सबसे बड़ी जरूरत है।
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