अनेक मोर्चो पर शिक्षा विभाग विरोधाभासों में घिरा दिखाई दे रहा है। दावे और हकीकत एक-दूसरे से एकदम जुदा हैं। निजी स्कूलों के मान्यता नियमों में उदारता लगातार बढ़ रही है जबकि दावे अविलंब कड़ी कार्रवाई के हो रहे हैं, शिक्षा का स्तर व सुविधाएं बढ़ाने के दावों की बौछार के बीच तथ्य सामने आ रहा है कि ढाई हजार से अधिक प्राथमिक स्कूलों में मुख्याध्यापक ही नहीं। पिछली कमियों, विफलताओं, गलतियों से सबक लिए बिना नए प्रयोगों को लादा जा रहा है। नए आदेश के तहत सरकारी स्कूलों में बच्चों के बौद्धिक स्तर की जांच का प्रयोग नए सत्र में आठवीं कक्षा के छात्रों पर किया जाएगा। विसंगतियों की फेहरिस्त लंबी है पर फिलहाल एक अहम मुद्दे पर शिक्षा विभाग को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। शिक्षा का अधिकार कानून के नियम 134 ए के तहत गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला दिलवाने के हाई कोर्ट के फैसले पर अमल के लिए उसके पास क्या तात्कालिक योजना है? निजी स्कूलों में दाखिले के आवेदनों की सही संख्या छिपाने की कोशिश की जा रही है। वास्तविकता तो यह है कि 40 हजार गरीब बच्चों के दाखिले की फाइल शिक्षा विभाग की प्रधान सचिव सुरीना राजन के कार्यालय में अर्से तक अटकी रही पर विभाग ने उसे निकलवाने में तत्परता नहीं दिखाई। अब चुनाव आचार संहिता का बहाना बना कर मामले को लटकाने की कोशिश हो रही है।1 हास्यास्पद बात यह है कि अधिकारी और मंत्री दावा कर रहे हैं कि फाइल निर्वाचन विभाग के पास लंबित है पर मुख्य निर्वाचन अधिकारी कह रहे हैं कि उनके पास कोई फाइल आई ही नहीं। शिक्षा विभाग अब तक दाखिले के लिए ड्रा की सूची जारी नहीं कर पाया। उधर निजी स्कूलों में दाखिला प्रक्रिया मार्च के दूसरे पखवाड़े में ही शुरू हो गई थी और अब बताया जा रहा है कि अधिकतर में गरीब बच्चों के लिए सीट ही नहीं बची। निजी स्कूल संचालकों का यह कहना किसी हद तक जायज है कि दस फीसद सीटों पर निश्शुल्क दाखिला देने के एवज में क्षतिपूर्ति योजना की जानकारी तो उन्हें दी जाए। शिक्षा मंत्री ने यह तो दोहरा दिया कि सरकार गरीब बच्चों को मुफ्त दाखिला देने की पक्षधर है पर यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा कि संकल्प आखिर पूरा कैसे होगा। शिक्षा विभाग को चाहिए कि नियम 134 ए के तहत अपने दायित्व को पूरा करने में तत्परता दिखाए और अवरोधों को दूर करे ताकि विरोधाभास दूर हो सके। djedtrl
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