वही हुआ जिसका डर था। 134 ए के तहत गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में निश्शुल्क शिक्षा के लिए सरकार ने राशि जारी नहीं की। इसका सीधा अर्थ है कि वह अभी तक अपनी ही घोषणा पर अनिश्चय की स्थिति में है जिसका खामियाजा भुगतान पड़ेगा गरीब बच्चों और अभिभावकों को। निजी स्कूल संचालक अभिभावकों से शपथ पत्र लेंगे कि सरकार ने अनुदान नहीं दिया तो सारी फीस स्वयं भरनी होगी। शिक्षा निदेशालय ने पत्र भी जारी कर दिया। 134 ए के तहत जो बच्चे निजी स्कूलों में पहली और दूसरी कक्षा में दाखिला ले चुके हैं, उनके अभिभावकों को भी महंगी स्कूल फीस व अन्य खर्चे वहन करने होंगे। निदेशालय की ओर से इस पत्र की प्रति सभी जिला मौलिक शिक्षा अधिकारियों को प्रेषित की जा चुकी है। तमाम बातों के मद्देनजर गरीब बच्चों व उनके अभिभावकों की चिंता और व्यथा को आसानी से समझा जा सकता है। बार-बार यू-टर्न लेने की सरकार की प्रवृत्ति कहीं न कहीं इसकी साख को प्रभावित अवश्य करेगी। पिछली सरकार में यदि कोई निर्णय अति उत्साह या बिना ठोस आधार और तैयारी के साथ लिया गया हो और व्यापक संदर्भो में उद्देश्य सकारात्मक हो तो सरकार बदलने के बाद भी उसके मूल भाव और सरोकार से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। किसी स्तर पर यदि बदलाव की गुंजाइश हो तो उसे न्यायोचित माना जा सकता है पर जवाबदेही से मुंह मोड़ना या मूल भावना को ही दरकिनार करना उचित नहीं। गरीब बच्चों को इस नियम के तहत निजी स्कूलों में निश्शुल्क दाखिले दिलाने की घोषणा करते वक्त सरकार ने यह कह कर अपनी पीठ थपथपाई थी कि ऐसी घोषणा करने वाला हरियाणा पहला राज्य है। इसके बाद तो जैसे तत्कालीन सरकार ने ही गरीब बच्चों के प्रति आंखें मूंद ली थी। किसी स्तर पर उनके साथ न्याय नहीं हुआ। कभी मूल्यांकन परीक्षा ली गई तो कभी किसी अन्य स्तर पर प्रताड़ना उनकी नियति बन गई। लंबे अर्से तक आश्वासन दिए जाते रहे और इसी दुविधा की स्थिति में सरकार भी बदल गई। विडंबना तो यह है कि नई सरकार की ओर से भी उनकी पीड़ा समझने की पहल नहीं की जा रही। शिक्षा विभाग की नीतियों में स्पष्टता व पारदर्शिता न आ पाने के कारण आज सरकारी स्कूल प्रतिस्पर्धात्मक स्तर पर पिछड़ रहे हैं। यहां बात किसी व्यवस्था या निर्णय को तार्किक अंजाम तक पहुंचाने की है। नियम 134 ए पर सरकार को स्पष्ट तौर पर अपनी नीति घोषित करनी चाहिए। dj
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