प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में दोपहर भोजन योजना के तहत मिलने वाले बजट को तर्कसंगत बनाए जाने की आवश्यकता है। प्रदेश सरकार यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि योजना केंद्र की है। केवल तीन रुपये और 34 पैसे में बनाया गया मिड डे मील कितना पौष्टिक होगा और बच्चे का कितना पोषण करेगा, आसानी से समझा जा सकता है। हरियाणा सबसे तेज विकसित हो रहे राज्यों में शुमार है तो क्या केवल केंद्र द्वारा तय आवंटन को ही अंतिम मान कर अपने स्तर पर कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करेगा? प्रदेश सरकार का दायित्व इसलिए भी बढ़ गया है कि यह योजना देश में सबसे पहले इसी राज्य से लागू हुई थी? विडंबना है कि कथनी-करनी , योजना की घोषणा और अमल, लक्ष्य निर्धारण और हासिल करने के तरीकों में हमेशा तीव्र विरोधाभास दिखाई देता रहा है। मिड डे मील के अलावा शिक्षा का अधिकार कानून और जननी सुरक्षा योजना की शुरुआत भी हरियाणा से ही हुई थी लेकिन किसी की भी स्थिति उत्साहजनक नहीं है। साढ़े तीन रुपये से भी कम खर्च में संतुलित और पोषक भोजन का दावा केवल हवा या सरकारी कागजों में तो किया जा सकता है पर वास्तविकता के धरातल पर देखा जाए तो यह मुंगेरी लाल के सपने और मोहम्मद तुगलक के हवाई किलों से अधिक कुछ नहीं। मसाले, तेल, गेहूं, चावल , दूध, घी, सब्जी, दाल, चीनी, दही के भाव देखें तो अहसास हो जाएगा कि मिड डे मील के लिए सरकार की जेब कितनी छोटी है। ऐसे में बच्चों को क्या दोपहर का पौष्टिक आहार दे पाना संभव है? हर माह मिड डे मील का मीनू बदल कर कोई नई डिश परोसने का दावा किया जाता है पर उसकी जगह भोजन में किसी और व्यंजन को कम कर दिया जाता है। यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि हलवा-पूरी, पुलाव, कढ़ी पकौड़ा, खीर सवा तीन रुपये प्रति छात्र की दर पर बनाया जाना संभव है। प्रदेश सरकार को अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के साथ इस योजना को वृहद स्वरूप प्रदान करने के लिए कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए। बात हास्यास्पद लगती है कि हर साल मिड डे योजना का खर्च बढ़ाया जाता है लेकिन केवल साढ़े सात प्रतिशत यानी महज 25 या 26 पैसे। इसे तर्कसंगत बनाने के लिए अपने स्तर पर विशेष पहल किए जाने की आवश्यकता है। सरकार मिड डे मील समेत हर योजना को लोक लुभावन बनाने के स्थान पर ठोस और यथार्थपरक रूप देने पर ध्यान केंद्रित करे। djedtrl
Monday, 14 April 2014
मिड डे मील : योजना की औपचारिकता
प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में दोपहर भोजन योजना के तहत मिलने वाले बजट को तर्कसंगत बनाए जाने की आवश्यकता है। प्रदेश सरकार यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि योजना केंद्र की है। केवल तीन रुपये और 34 पैसे में बनाया गया मिड डे मील कितना पौष्टिक होगा और बच्चे का कितना पोषण करेगा, आसानी से समझा जा सकता है। हरियाणा सबसे तेज विकसित हो रहे राज्यों में शुमार है तो क्या केवल केंद्र द्वारा तय आवंटन को ही अंतिम मान कर अपने स्तर पर कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करेगा? प्रदेश सरकार का दायित्व इसलिए भी बढ़ गया है कि यह योजना देश में सबसे पहले इसी राज्य से लागू हुई थी? विडंबना है कि कथनी-करनी , योजना की घोषणा और अमल, लक्ष्य निर्धारण और हासिल करने के तरीकों में हमेशा तीव्र विरोधाभास दिखाई देता रहा है। मिड डे मील के अलावा शिक्षा का अधिकार कानून और जननी सुरक्षा योजना की शुरुआत भी हरियाणा से ही हुई थी लेकिन किसी की भी स्थिति उत्साहजनक नहीं है। साढ़े तीन रुपये से भी कम खर्च में संतुलित और पोषक भोजन का दावा केवल हवा या सरकारी कागजों में तो किया जा सकता है पर वास्तविकता के धरातल पर देखा जाए तो यह मुंगेरी लाल के सपने और मोहम्मद तुगलक के हवाई किलों से अधिक कुछ नहीं। मसाले, तेल, गेहूं, चावल , दूध, घी, सब्जी, दाल, चीनी, दही के भाव देखें तो अहसास हो जाएगा कि मिड डे मील के लिए सरकार की जेब कितनी छोटी है। ऐसे में बच्चों को क्या दोपहर का पौष्टिक आहार दे पाना संभव है? हर माह मिड डे मील का मीनू बदल कर कोई नई डिश परोसने का दावा किया जाता है पर उसकी जगह भोजन में किसी और व्यंजन को कम कर दिया जाता है। यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि हलवा-पूरी, पुलाव, कढ़ी पकौड़ा, खीर सवा तीन रुपये प्रति छात्र की दर पर बनाया जाना संभव है। प्रदेश सरकार को अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के साथ इस योजना को वृहद स्वरूप प्रदान करने के लिए कार्ययोजना तैयार करनी चाहिए। बात हास्यास्पद लगती है कि हर साल मिड डे योजना का खर्च बढ़ाया जाता है लेकिन केवल साढ़े सात प्रतिशत यानी महज 25 या 26 पैसे। इसे तर्कसंगत बनाने के लिए अपने स्तर पर विशेष पहल किए जाने की आवश्यकता है। सरकार मिड डे मील समेत हर योजना को लोक लुभावन बनाने के स्थान पर ठोस और यथार्थपरक रूप देने पर ध्यान केंद्रित करे। djedtrl
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